जिनके दम से रोशनाई है...........
जिनसे बरसों की शनाशाई है......
जिनकी खातिर सुखनवराई है....
जिनकी सौगात ये तन्हाई है .....

संजय महापात्र "काफिर"

मंगलवार, 3 जनवरी 2012

गम-ए-जहाँ

वाह क्या होशियार हम निकले
खूँ मेरा करके मसीहा निकले


बने फिरते हैं जो कोतवाल-ए-शहर
उन्ही के दस्ताने रंगे हुए निकले


जिनका दावा था हैं चिराग-ए-शहर  
उन्ही के आशियानों से अंधेरे निकले


जुबाँ खामोश और आँखे बड़बड़ाती थी
मेरी रूखसती पर यूँ पारसाँ निकले  


मुझे जो सरेबज्म “काफिर” कहा करते थे
उन्हे ही कोसते कल खुदा निकले

गुरुवार, 29 दिसंबर 2011

कैसा लगता है

हम भी तेरे दिल भी तेरा कैसा  लगता है
मेरी  नजर से  तुझको सलाम कैसा  लगता है 

समंदर का किनारा  और तेज हवायें
तेरे गले में मेरी  बाँहे कैसा  लगता है 

इक दूजे से दूर गर हो जायें हम कभी
सोचो जरा तुम उस आलम को कैसा  लगता है

तेरी अदा का  कायल जहाँ में हरेक शख्श
सारी  दुनिया तेरी  गुलाम कैसा  लगता है 

किसी महफिल में मंजर-ए-आम पर
तेरी जुबाँ से "काफिर" की गजलें कैसा  लगता है

शुक्रवार, 18 नवंबर 2011

नगमा-ए-दिल




गुनगुनाओ  कि आज  चश्म नम है
तुम नहीं हो तो पूछते है क्या गम है

तुम हमारे न थे ये कब इंकार मुझे
तुम किसी के ना हुए ये क्या कम है

तुम्हारे बोल मीठे से कानो में घुले थे
बस वही चाशनी लबों पे हर दम है
 
तेरे अशआर से हरदम सर उठता था
तेरे मक्ते से क्यूँ आज सर खम है 

जिसे तुम नाज से कहते थे "काफिर"
लब्ज-ए-मिशरी वही आज क्यों कम है


चश्म – आँख , अशआर – सेर (बहु.) , मक्ता – गजल का आखिरी सेर ,
सर खम – झुका हुआ सर
,  लब्ज-ए-मिसरी – मीठे बोल
,

रविवार, 18 सितंबर 2011

मुझ पर यकीं नहीं

कमबख्त मेरी कलम मेरी मानती नहीं
ये और बात है तुम्हे मुझ पर यकी नहीं  

जब भी मिला मुझसे सीधे गले मिला
पीठ पर ये खंजर उसी का तो कही नहीं  

शब भर चला दौर जहन्नुम-ओ-बहिश्त में
मैं वहाँ भी नहीं था मैँ यहाँ भी नहीं  

दीवानगी को मेरे तुम न समझ पाओगे
दानिश की किताब में हर्फ-ए-इश्क ही नहीँ  

दयरोहरम में खोजा “काफिर” तमाम उम्र
मैकदे मे जो मिला वही तो कही नहीं

शुक्रवार, 9 सितंबर 2011

कुछ त्रिवेणीयाँ ....

श्री सम्पूरन सिंह कालरा जिन्हे लोग "गुलजार" के नाम से जानते हैं इक उम्दा और सादगी भरे अंदाज से अपनी बात कहने वाले कमाल के शायर हैं उनका तीन मिसरों में बात कहने का नायाब अंदाज जिसे उन्होने त्रिवेणी कहा, मुझे बेहतरीन लगा !
उनके इसी अंदाज "त्रिवेणी" मे अर्ज किया है जिसमें दो मिसरों में अपनी बात है और तीसरे मिसरे में उसकी तसव्वुफ़ मिसाल पेश करने की कोशिश की है !
 जेर-ए-गौर पेश-ए-खिदमत --


  =1=
मैंने कब माँगी थी उम्र जलवों में बसर 
साथ उसका छूटा तो ये हाल है अब
अजनबी शहर हो और जेब में पैसे भी नही

=2=
जब बुलंदी पे था तो हजारों हाथ उठे
गर्दिश-ए-दौराँ में सब साथ छोड़ चले
दोपहर के धूप में साया भी सिमट जाता है

=3=
तेरे चेहरे में थी क्यूँ समुंदर सी गहराई
आँख से तेरी सूरत टपक कर लब पे पड़ी
आब-ए-बहर नमकीन ही तो लगता है

=4=
लोग कुछ ढूँढते जब भी इस गली आयें
क्यूँ मेरे घर के आस्ताँ पे ठहर जायें
मेरी हाथों में लकीरो के सिवा कुछ ना था

=5=
वो कल ताउम्र साथ चलने का दम भरता था
आज कोठी के साये में मेरी झोपड़ी खटकती है
मखमली चादर पे टाट के पैबंद लगाये नही जाते  

=6=
वो मेरे साथ था तो सेहरा मे अब्र सा एहसास
बिछड़ गया तो चेहरा भी मुरझाने लगा
शजर से साख टूट जाये तो पत्ते भी सूख जाते हैं


==7==
किसी के हसरतों का कत्ल कर डोली सजा ली
हम उनके हाथों की सुर्खी का शबब पूछते रहे
शहर में उसके दस्त-ए-हिना का रिवाज है यारों 

==8== 
रात की तन्हाई में ये सिसकियाँ किसकी है
मजलिस में तो वो शख्स मुस्कुराता मिला था
सूरज की रोशनी में ओस की बूँदे काफूर हो जाती है

सोमवार, 5 सितंबर 2011

ये दम किसमें है


तुझसा अंदाज-ए-बयाँ, ये दम किसमें है
तेरी बज्म से उठ जायें
, ये दम किसमें है

तुमने कुछ कहकर मेरी आबरू रख ली
तुझसे फरियाद करें, ये दम किसमें है

दुनिया दीवानो को पागल करार देती है
खुद ही आशियाँ जलायें, ये दम किसमें है

पड़ा था कब्र पर फिर भी आँखे खुली रही
“काफिर” जैसी हसरतें, ये दम किसमें है

सोमवार, 22 अगस्त 2011

यूँ ही बेसबब ...


जिसकी जैसी फितरत वैसी उसकी चाल
कौवों से उम्मीद करे हैं हंसो सी हो चाल  

लोकतंत्र की आड़ में खुल्ले छुट्टे साँड
घोड़ों को फाके पड़े हैं गधें उड़ाये माल  

कैसा अजब तमाशा कैसी नूरा कुश्ती
कोई हारे कोई जीते जनता हुई हलाल  

काले धन वीसा लेकर स्विस मेहमान हुए
कर्ज बोझ से देश दबा जनता बनी हमाल  

तीन शिकार तो कर चुकी है टूजी की गुगली
चित्तभरम क्या तू है चौथा मन में यही सवाल  

किसके आगे दुखड़ा रोयें किससे करें सवाल
नेता बन गये इस देश में भाड़े के दलाल

शुक्रवार, 22 जुलाई 2011



मेरी दास्तां को रूबाई बना दो
गज़ल गुनागुनाने का शमां तुम बना दो

पुराने जख्म कुछ भर से गये हैं
इनमें जरा तुम नश्तर लगा दो

हुए खत्म इंम्तिहाँ गर जुल्मों सितम के
कभी आ कर नतीजा-ए-मोहब्बत सुना दो

गुजरे जमाने बेघर हुए अब
खातिर बसर आशियाँ तो बना दो

बहुत थक गये दौड़-ए-दुनिया से "काफिर"
मिले चैन रूह को इक नगमा सुना दो


............. संजय महापात्र"काफिर"...........

रविवार, 17 जुलाई 2011

सोच रहा हूँ

देखा है तुझे जबसे यही सोच रहा हूँ
मर जाऊँ की जी जाऊँ यही सोच रहा हूँ


तू भी मुझे चाहे कभी मेरी ही तरह से

मुद्दत से बस एक बात यही सोच रहा हूँ


मेरी वफा पे तुझको ऐतबार हो जाए
दिल क्या रंग करूँ यही सोच रहा हूँ


होंठों पे हसीं की बात बहुत दूर है शाकी
गम से निजात पा जाऊँ यही सोच रहा हूँ


उँगली को हिलाता है हवाओं में मेरी तरह
“काफिर” भी पड़ा इश्क में यही सोच रहा हूँ

शुक्रवार, 15 जुलाई 2011

तो कुछ बात बने

जाम के साथ गर शाम हो तो कुछ बात बने
सादा पानी भी तेरे हाथ हो तो कुछ बात बने


रंज ही रंज हर सिम्त ये कैसा आलम-ए-जहाँ
हो तबस्सुम सभी लब पे तो कुछ बात बने


है अमीरी से नियामत तो यह कमाल सिक्कों का
हो फकीरी में भी गर शाह तो कुछ बात बने


हुश्न के दम पे गिराते हैं बर्क-ए-बर्नाई
सादगी से हो इक कयामत तो कुछ बात बने


तू कभी अँगड़ाई ले और हाथों को मेहराब करे
“काफिर” फिर करे सजदा तो कुछ बात बने