जिनके दम से रोशनाई है...........
जिनसे बरसों की शनाशाई है......
जिनकी खातिर सुखनवराई है....
जिनकी सौगात ये तन्हाई है .....

संजय महापात्र "काफिर"

शुक्रवार, 18 नवंबर 2011

नगमा-ए-दिल




गुनगुनाओ  कि आज  चश्म नम है
तुम नहीं हो तो पूछते है क्या गम है

तुम हमारे न थे ये कब इंकार मुझे
तुम किसी के ना हुए ये क्या कम है

तुम्हारे बोल मीठे से कानो में घुले थे
बस वही चाशनी लबों पे हर दम है
 
तेरे अशआर से हरदम सर उठता था
तेरे मक्ते से क्यूँ आज सर खम है 

जिसे तुम नाज से कहते थे "काफिर"
लब्ज-ए-मिशरी वही आज क्यों कम है


चश्म – आँख , अशआर – सेर (बहु.) , मक्ता – गजल का आखिरी सेर ,
सर खम – झुका हुआ सर
,  लब्ज-ए-मिसरी – मीठे बोल
,

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