मेरी दास्तां को रूबाई बना दो
गज़ल गुनागुनाने का शमां तुम बना दो
पुराने जख्म कुछ भर से गये हैं
इनमें जरा तुम नश्तर लगा दो
हुए खत्म इंम्तिहाँ गर जुल्मों सितम के
कभी आ कर नतीजा-ए-मोहब्बत सुना दो
गुजरे जमाने बेघर हुए अब
खातिर बसर आशियाँ तो बना दो
बहुत थक गये दौड़-ए-दुनिया से "काफिर"
मिले चैन रूह को इक नगमा सुना दो
............. संजय महापात्र"काफिर"...........