जिनके दम से रोशनाई है...........
जिनसे बरसों की शनाशाई है......
जिनकी खातिर सुखनवराई है....
जिनकी सौगात ये तन्हाई है .....

संजय महापात्र "काफिर"

शुक्रवार, 22 जुलाई 2011



मेरी दास्तां को रूबाई बना दो
गज़ल गुनागुनाने का शमां तुम बना दो

पुराने जख्म कुछ भर से गये हैं
इनमें जरा तुम नश्तर लगा दो

हुए खत्म इंम्तिहाँ गर जुल्मों सितम के
कभी आ कर नतीजा-ए-मोहब्बत सुना दो

गुजरे जमाने बेघर हुए अब
खातिर बसर आशियाँ तो बना दो

बहुत थक गये दौड़-ए-दुनिया से "काफिर"
मिले चैन रूह को इक नगमा सुना दो


............. संजय महापात्र"काफिर"...........

रविवार, 17 जुलाई 2011

सोच रहा हूँ

देखा है तुझे जबसे यही सोच रहा हूँ
मर जाऊँ की जी जाऊँ यही सोच रहा हूँ


तू भी मुझे चाहे कभी मेरी ही तरह से

मुद्दत से बस एक बात यही सोच रहा हूँ


मेरी वफा पे तुझको ऐतबार हो जाए
दिल क्या रंग करूँ यही सोच रहा हूँ


होंठों पे हसीं की बात बहुत दूर है शाकी
गम से निजात पा जाऊँ यही सोच रहा हूँ


उँगली को हिलाता है हवाओं में मेरी तरह
“काफिर” भी पड़ा इश्क में यही सोच रहा हूँ

शुक्रवार, 15 जुलाई 2011

तो कुछ बात बने

जाम के साथ गर शाम हो तो कुछ बात बने
सादा पानी भी तेरे हाथ हो तो कुछ बात बने


रंज ही रंज हर सिम्त ये कैसा आलम-ए-जहाँ
हो तबस्सुम सभी लब पे तो कुछ बात बने


है अमीरी से नियामत तो यह कमाल सिक्कों का
हो फकीरी में भी गर शाह तो कुछ बात बने


हुश्न के दम पे गिराते हैं बर्क-ए-बर्नाई
सादगी से हो इक कयामत तो कुछ बात बने


तू कभी अँगड़ाई ले और हाथों को मेहराब करे
“काफिर” फिर करे सजदा तो कुछ बात बने